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आदर्श महिला

और अपने महत्त्व को सोचकर चित्ररथ ने वहाँ और अधिक दिन रहना मंज़ूर नहीं किया।

राजा चित्रसेन ने प्राण से अधिक प्यारी बेटी को दास-दासी। और क़ीमती कपड़े तथा गहने देकर आँसू पोंछते-पोंछते बिदा किया।

चिन्ता ने ससुराल में आकर भक्ति से सास के चरण छुए। श्रीवत्स की माता ने रूपवती और गुणवती बहू को प्रेम से अपनाया! चिन्ता की भक्ति और सेवा पर राजा-रानी दोनों प्रसन्न रहते, अच्छे बर्ताव और ममता से नौकर-चाकर खुश रहते, दया तथा आदर से अन्धे अपाहिज तृप्त होते और चिन्ता की प्रेम-पूजा से राजकुमार श्रीवत्स प्रसन्न रहते।

इसी तरह कुछ दिन बीते। राजा चित्ररथ ने योग्य पुत्र श्रीवत्स को राज्य देकर वानप्रस्थ ले लिया। रानी भी राजा के साथ चली गईं।

[४]

अब प्राग्‌देश के राजा श्रीवत्स हैं। वे साक्षात् धर्म की तरह प्रजा का पालन करने लगे। प्रजा भी राजा पर प्रेम से भक्ति रखने लगी। राज्य में न कहीं दंगा-फ़साद था और न किसी को कुछ खेद। सुख-शान्ति से राज्य भरा-पूरा था; उस सुख-शान्ति-पूर्ण राज्य में चिन्ता आदर्श रानी और आदर्श माता हो चली। वह अपने प्रेम से और दया के व्यवहार से प्रजा की आँखों में देवी-समान जँचने लगी।

एक दिन वसन्त की रात में श्रीवत्स चिन्ता के साथ महल के बग़ीचे में थे। आसपास और कोई नहीं था। प्यारे पति की देह पर अपनी देह का सहारा देकर चिन्ता बैठी हुई है। चिन्ता के हँस ले और लजीले मुखड़े को एकटक देखकर राजा तृप्त हो रहे हैं। नीले, आकाश से पूर्ण-चन्द्र राजा और रानी के मधुर मिलन के इस दृश्य