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आख्यान]
२२९
चिन्ता

को देखकर हँसी की किरणें पृथिवी पर फेंक रहा है। इतने में चिन्ता ने कहा—आर्यपुत्र! इस पृथिवी में सुख कहाँ है? मैं जिसको सुख समझती हूँ उसी से दूसरे को दुःख हो सकता है। मैं समझती हूँ कि इस कर्मभूमि पृथिवी में काम करके ही मनुष्य सुखी होते हैं। नाथ! दया करके मुझे समझा दो कि मनुष्य-जीवन का कर्तव्य और सुख-दुख क्या है?

श्रीवत्स ने चिन्ता की इस विचार-पूर्ण बात से बहुत प्रसन्न होकर कहा—"प्यारी! तुम जन्म से विलास की गोद में पली हो। ऐसा गम्भीर विचार तुम्हारे चित्त में कैसे आया?" चिन्ता चुप हो रही। श्रीवत्स ने कहा—प्यारी! तुम अपने नाम को सार्थ करती हो। तुमने पृथिवी पर दया से एक नया राज्य कायम कर दिया है। तुमने मतवाले स्वामी को सोचने-विचारने की शिक्षा दी है। तुम धन्य हो और तुमसे अधिक धन्य मैं हूँ कि तुम्हारी जैसी देवी-मूर्ति का स्वामी हुआ। प्रिये! इस जगत् में भगवान् की विचित्र सृष्टि है। प्रभु की एक अपार शक्ति सब जगह फैली हुई है। जगत् की सब वस्तुएँ उसकी अपार दया और अपूर्व महिमा को प्रकट कर रही हैं। संसार की चरखी में घूमते हुए हम लोग प्रकृति देवी के उस महासंगीत को नहीं सुनते। पक्षियों का कल-गान, वृक्षों के पत्तों का मर्मर-शब्द, वन-देवी की वन-वीणा की सुरीली तान इत्यादि सभी उस महासंगीत के सिर्फ़ झन्कार हैं। हम लोग उसकी माधुरी को नहीं समझ सकते। जिन्होंने भगवान् को पहचाना है उन्हें तुच्छ धूल से लेकर बड़ी से बड़ी वस्तु तक में उस प्रभु की अनन्त महिमा दिखाई देती है। आज इस वसन्त की सुन्दर चाँदनी रात में, तुम्हारे पास बैठकर, मैंने जो ज्ञान पाया है वह अपूर्व है—उसका अन्त नहीं है। रानी! जो लोग संसारी हैं वे समझते हैं कि पृथिवी में सुख नहीं