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आख्यान]
२३७
चिन्ता


राजा ने चिन्ता देवी की मङ्गलभरी बातें सुनकर बड़ी प्रसन्नता से कहा—चिन्ता! तुम मनुष्य नहीं, तुम तो साक्षात् देवी हो। तुम माया से अशुद्ध इस पृथिवी में तत्त्वज्ञान की अपूर्ण माधुरी लिये हुए शोभी पा रही हो। मेरा बहुत पुण्य था। उसी पुण्य के फल से तुम्हारे समान ज्ञानमयी सौभाग्य-लक्ष्मी को पाकर धन्य हुआ हूँ।

धीरे-धीरे सन्ध्या हो गई। जगत् के पति ने प्रकृति के माथे में सेंदुर लगा दिया। फूलों ने सुगन्ध का झरना खोल दिया। पखेरू सन्ध्या समय का भजन करने लगे। मन्दिरों में भारती के घण्टे बजने लगे।

[७]

राजा ने सबेरे उठकर प्रातःकाल की प्रकृति की बाँकी शोभा में भी कुछ कमी सी पाई। प्रकृति की इस नई रङ्ग-भूमि पर मानो सब कुछ उनको बेसुरा मालूम होने लगा।

धीरे-धीरे दिन चढ़ा। राजसी पोशाक पहनकर श्रीवत्स राजदरबार में आये। राजा के सिंहासन की दाहिनी ओर एक सोने का और बाई ओर चाँदी का सिंहासन रक्खा गया। बीच में अपने सिंहासन पर, राजा श्रीवत्स रानी के साथ बैठकर राज-कार्य देखने लगे।

इतने में वहाँ शनि और लक्ष्मी का आगमन हुआ। उनको देखकर राजी और राजा सिंहासन छोड़कर खड़े हो गये। नम्रता से दोनों को प्रणाम कर उन्होंने उनसे बैठने के लिए कहा। शनि अपनी "इच्छा से राजसिंहासन के बायें भाग में चाँदी के सिंहासन पर, और लक्ष्मी दाहिने भाग में सोने के सिंहासन पर बैठ गईं। राजा और रानी क्रम से शनि और लक्ष्मी के पास खड़े होकर उनकी सेवा करने लगे।