पृष्ठ:आदर्श महिला.djvu/२५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
आख्यान]
२३९
चिन्ता


श्रीवत्स की इस बात से शनि का क्रोध और भी बढ़ गया। उन्होंने और भी रुखाई से कहा—महाराज! हम लोग तुमसे इन्साफ़ कराने आये हैं। साफ़ बताओ कि शनि बड़े या लक्ष्मी।

श्रीवत्स—देव! इस विषय का फैसला आप लोगों ने स्वयं कर लिया है। आप लोग अगर अपने-अपने आसन की ओर ध्यान दें तो समझ जायँगे कि आप लोगों में कौन बड़ा है।

शनि—महाराज! हम लोग तुम्हारे राज-दरबार में मेहमान के माफ़िक़ आये हैं। तुम्हारे दिये आसन पर हम लोग अपनी इच्छा से बैठ गये हैं इससे इस बात का फैसला नहीं हो सकता कि कौन बड़ा है और कौन छोटा। तुम खोलकर साफ़-साफ़ बताओ।

श्रीवत्स-देव! मामूली ढँग पर रहन-सहन, और आसन-भेद से बड़े-छोटे का विचार होता है। जो बड़ा होता है उसका आसन भी कीमती और दाहिनी ओर होता है। आपने लक्ष्मी को सुनहले आसन पर अपनी दाहिनी ओर स्थान दिया है। इसलिए, अब इसका विचार मैं क्या करूँगा? जगत् का धर्म ही यह है कि अपने से ऊँचे के आगे सब लोग सिर नवाते हैं। बर्फ़ का मुकुट पहननेवाला हिमाचल भी अनन्त महिमावाले भगवान् के सामने प्रणाम के बहाने सिर झुकाये हुए है। ऊँचा पेड़ भी भारी पहाड़ के सामने झुका हुआ है। वनस्पतियाँ भी विकट पर्वत के आगे सिर झुकाये हैं।

श्रीवत्स की इस विनती से भी शनि सन्तुष्ट नहीं हो सके। उन्होंने सिंह की तरह गरजकर कहा—महाराज! मैं तुम्हारी चालाकी के फ़ैसले को समझ गया। घुमा-फिराकर मेरा अपमान करना ही तुम्हारी इस चालाकी का असल मतलब है। अच्छा, देखा जायगा। तुम अपनी रक्षा कैसे करते हो। जानते हो महाराज! मेरी इच्छा से सुख के मन्दिर में हाहाकार मच जाता है; विलास की फुलवाड़ी मरघट