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आख्यान]
२४१
चिन्ता

सन्नाटा छा गया। ऐसा सन्नाटा कि सुई गिरने की आवाज़ भी सुन पड़े। अचानक सन्नाटे को तोड़कर राजा ने प्रधान मंत्री से कहा—मंत्रिवर! देखी आपने देवताओं की लीला? बताइए, अब क्या करें।

मंत्री—राजन्! सब बातों में भाग्य ही बलवान् है। भाग्य के साथ झगड़ने की शक्ति मनुष्य में नहीं है। आपके भाग्य में अगर शनि का भोग लिखा होगा तो उसे भोगना ही पड़ेगा। उसके लिए अब चिन्ता करने से क्या होगा?

सभा के सब लोग रानी चिन्ता की बुद्धि की तेज़ी और शनि तथा लक्ष्मी की बातें सोचते-सोचते घर गये।

उस दिन के लिए सभा का काम बन्द हुआ।

इतना बड़ा अनर्थ हो गया, परन्तु रानी को कुछ परवा नहीं। उन्होंने सोचा—दुख किस बात का है? मनुष्य के माथे में विधाता ने जो लिख दिया उसे कौन मेट सकता है? उनके लिखे को तो भोगना ही पड़ेगा। इसके लिए हम लोगों को पहले ही से सावधान होना चाहिए। इसके लिए चिन्ता नहीं—बन्दोबस्त करना होगा—हृदय को बलवान् बनाना होगा। कर्तव्य के ज्ञान को सिर पर लेकर पृथिवी में सारी दिक्क़तों के सामने खड़ा होना ही सच्ची वीरता है।

रानी की ऐसी स्थिरता और उनके पक्के इरादे को देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने सोचा कि जब यह सती मेरी बग़ल में है तब जगत् के अपार कष्टों को मैं बिना चूँ किये गले लगा सकता हूँ।

[८]

उस वर्ष देश में कहीं अन्न नहीं उपजा। प्रजा भूखों मरने लगी। राजभाण्डार का अन्न प्रजा में बाँटा गया; किन्तु दूसरे वर्ष भी यही हाल रहा। तब राजा ने बहुत कुछ ख़र्च करके दूसरे राज्यों से अन्न