पृष्ठ:आदर्श महिला.djvu/२५९

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आख्यान]
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चिन्ता


रानी ने गिड़गिड़ाकर कहा—नहीं महाराज! यह नहीं होगा। स्वामी के सिवा स्त्री के लिए और कुछ सहारा नहीं है। मुझे आपके साथ वन-वन घूमने में कुछ भी कष्ट नहीं होगा। उदासी या थकावट के समय हम लोग एक-दूसरे के आसरे रहकर हृदय में बल पावेंगे। महाराज! मुझे वैसी आज्ञा मत दीजिए।

राजा—रानी! वन बड़ा बीहड़ होता है। वह कठिनाई से तय किया जाता और काँटों से भरा होता है। तुम उसमें चल नहीं सकोगी।

रानी—नहीं महाराज! वहाँ मुझे कुछ भी कष्ट नहीं होगा। उलटे, आपके छोड़ जाने से, मैं अधिक दुःख पाऊँगी। महाराज! क्या आप मुझे केवल सुख की संगिनी-वसन्त की कोयल समझते हैं? आपका सुख ही मेरा सुख है और आपका दुःख ही मेरा दुःख है। क्या स्त्री का यही धर्म है कि सुख पाकर तो वह तृप्त हो और दुःख में साथ छोड़कर अधर्म बटोरे? राजन्! आप मुझे क्या इतनी खोटी समझते हैं? मैं तो जानती हूँ कि आप बड़े धर्मात्मा और विवेकी हैं; किन्तु राज्य की अवस्था बदलने के साथ-साथ क्या आपके मन का भाव भी बदल गया? नहीं तो, ऐसे प्रेम से भरे हृदय पर अनादर और रुखाई की छाया क्यों पड़ी? आप जिसको इतना प्यार करते हैं आज उसका इतना निरादर क्यों? महाराज! मैं कमसमझ स्त्री हूँ; अगर भूल से आपके साथ कोई बेजा बर्ताव किया हो तो क्षमा कीजिए। नाथ! मछली को पानी से बाहर निकालकर ख़ूब मुलायम राजगद्दी पर बिठा देने से क्या उसके साथ ठीक व्यवहार होगा? आप ज्ञान-गुरु बृहस्पति के समान हैं। भला आपसे मैं क्या कह सकती हूँ? फिर भी कहती हूँ कि मुझे नैहर जाने की आज्ञा मत दीजिए। स्वामी के साथ