पृष्ठ:आदर्श महिला.djvu/२६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२४४
[पाॅंचवाॅं
आदर्श महिला

छाया की तरह रहने में ही स्त्री का मान है। स्वामी के मेहनत करने से, जब पसीना आ जावे तब उसे आँचल की हवा से दूर करना स्त्री का काम है। दया करके मेरे उस सौभाग्य को और कर्तव्य के अधिकार को छीन न लीजिए।

राजा और कुछ नहीं कह सके। उन्होंने कहा—चिन्ता! मेरी प्राणप्यारी चिन्ता! तुम मेरे साथ चलो। तुम मेरे काम में साधना हो, निराशा के समय ढाढ़स हो, जीवन में प्रेम हो; तुम मेरे साथ चलो। मैं तुम्हें और कुछ नहीं कहूँगा। मैं समझ गया कि शक्ति के अंश से स्त्री उत्पन्न होती है, वह सुख के सरोवर में खिली हुई कमलिनी है और दुःखों के समुद्र में अकेली आश्रयरूपी नौका है।

कल्पित विरह के दुःख से रानी के मुख पर जो मलिनता आ गई थी वह दूर हो गई, उस पर फिर हँसी की झलक आ गई।

राजा ने कहा—रानी! यह शोक-दृश्य अब देखा नहीं जाता। चलो, आज ही हम लोग यहाँ से निकल चलें। कुछ धन-दौलत साथ में ले लें। साथ में धन रहने से कष्ट कुछ घट सकता है।

[९]

अँधेरी रात है। निद्रा देवी की गोद में पृथिवी सोई हुई है। चारों ओर सन्नाटा है। बीच-बीच में रात को घूमनेवाले दो-एक पक्षियों के पंखों की फरफराहट और नगर के बाहर मैदान में गीदड़ों का "हुआँ-हुआँ' शब्द उस सन्नाटे में बाधा डालता है। राजा और रानी दोनों, इसी समय, राजमहल से निकलकर नगर के बाहर आ गये। इस बात का निश्चय नहीं है कि कहाँ जायँगे, तो भी चल पड़े हैं। उस घने अन्धकार में राजा के सिर पर धन की एक गठरी है। रानी चिन्ता स्वामी का हाथ थामकर जा रही है। दोनों में किसी के मुँह से कोई बात नहीं निकलती। राजा के