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आख्यान]
२४७
चिन्ता

आदमियों को पार उतार सकता हूँ। जो तुम यह गठरी साथ ले चलोगे तो मेरी नाव डूब जायगी।

राजा—अच्छा मल्लाह! एक काम करो। तुम इस गठरी को पहले उस पार रख आना; फिर लौटकर हम लोगों को ले चलना।

बूढ़े ने हँसकर कहा—यही सही।

राजा ने धन-रत्नों की गठरी बूढ़े के हाथ में दे दी। बूढ़ा मन ही मन खुश होकर गुनगुनाता चला—'सुध-बुध सकल भुलानी।'

अचानक राजा ने देखा कि न वह नदी है, न नाव है, न वह मल्लाह है और न वह धन की गठरी ही है। पलक मारते-मारते सब गायब। राजा के कानों में भनक पड़ी—करम-गति टारेहु नाहिं टरै।

तब राजा ने कहा—चिन्ता! सच समझो, यह बूढ़ा और कोई नहीं स्वयं शनि थे। माया फैलाकर, यत्न से बटोरे हुए, मेरे रत्नों को हर ले गये। अब उसके लिए फ़िक्र करना वृथा है। मैं भाग्य की हँसी उड़ाने चला था, किन्तु हँसी करने में वीरता नहीं है—वीरता साधना में है।

रानी ने कहा—पहले जो यह सोचा था कि धन-दौलत विपद को दूर करती है, सो वह बात ठीक नहीं निकली। अच्छा जाने दीजिए, भला ही हुआ। कोई उपाय होने से हो हृदय का बल बढ़ता है, हिम्मत आती है। प्राणनाथ! अब कहाँ जाइएगा?

राजा—कहाँ जाऊँ देवी! चलो, यह जो सामने वन की हरियाली दिखाई देती है उधर ही चलें।

रानी—चलिए महाराज! वन के ऐसी आराम की जगह कहीं नहीं है। वह कोमलता और मधुरता बड़ी सुखदायक होती है। भाव-रस में मन को आराम देती है। वह सुन्दरता तथा गम्भीरता में बहुत बढ़ कर है। चलिए नाथ! इसी वन में चलें।