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[पाॅंचवाॅं
आदर्श महिला

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राजा और रानी कुछ दूर आगे जाकर, वन में पहुँचे। उन्होंने देखा कि वह वन तरह-तरह के फलदार वृक्षों से पूर्ण है। भूखे श्रीवत्स जङ्गली फलों को बटोरकर एक नदी के किनारे पहुँचे। उन फलों को खाकर तथा नदी के निर्मल जल को पीकर वे कुछ ठण्ढे हुए। रानी चिन्ता ने भी स्वामी की आज्ञा से कुछ जङ्गली फल खाकर पानी पिया। इस प्रकार, वे कुछ स्वस्थ और शान्त होकर बातचीत करने लगे। रानी ने कहा—महाराज! भगवान् का दान अनन्त है, भाग्य का विचार उनके सामने नहीं है। जगत्-पति ने जीवों के लिए दया की अनन्त धारा बहा रक्खी है। उन्होंने अपने बनाये हुए मीठे फलों को, नदियों के नीर को, हवा के झोकों को, नीले आकाश की निर्मलता को, फूलों की सुगन्ध को और चिड़ियों की चहक को—सब जीवों के लिए, समभाव से, बाहर लूटने योग्य बना दिया है, लेकिन जीव, सब समय, उसे भोगकर अपनी ग्लानि को दूर करने नहीं पाता। यह उसका भाग्य है। उस भाग्य के बनानेवाले वे नहीं हैं—कोई और है। महाराज! धिक्कार है हम लोगों को कि जगत्-पिता के मङ्गल-युक्त काम में दोष लगाकर अपने पाप का बोझ बढ़ाते हैं।

राजा—रानी! तुम में ज्ञान ख़ूब है। मैं इस विषय में तुमको अधिक क्या समझाऊँगा। इस असार संसार में माया के बन्धन से मनुष्य सदा व्याकुल रहते हैं। इसी से वे अक्सर जगदीश्वर की निन्दा करते हैं। कर्म-फल से ही भाग्य बनता है। उस भाग्य का विधाता, घट-घट में समाये हुए अनन्त का अंशमात्र है।

रानी—महाराज! आपकी बातों से मुझे सब विषयों में अच्छा