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[पाॅंचवाॅं
आदर्श महिला

माँजी' कहकर प्रसन्न होते थे। आज, माता के दिये हुए प्रसाद को पाने की इच्छा से, वे अत्यन्त पुलकित होकर राजा की कुटी में आये और अनेक कामों में उनका साथ देने लगे।

रानी चिन्ता ने तरह-तरह की रसोई बनाई। न्यौते हुए लकड़हारे स्त्री, पुरुष, बालक आदि ठीक वक्त पर भोजन करने बैठे। राजा पास खड़े होकर देखने लगे। चिन्ता साक्षात् अन्नपूर्णा होकर परोसने लगी।

राजा और रानी ने, उस विजन वन में, आनन्द की गृहस्थी बना ली। अब उनको कुछ कष्ट नहीं है। उन सीधे-सादे लकड़हारों का पड़ोस मिलने से राजा का जीवन आनन्द से कटने लगा, किन्तु राजा-रानी का यह सुख शनि देवता से देखा नहीं गया।

[११]

राजा-रानी जहाँ रहते थे उसके पास हो एक छोटीसी नदी थी। बहुतसे सौदागरों की नावें, उस नदी के रास्ते, देशावर को, व्यापार करने आया-जाया करतीं। एक दिन एक सौदागर उसी नदी से जा रहा था। अचानक उसकी नाव रेती में अटक गई। सौदागर ने बड़ी-बड़ी कोशिशें कों; डाँड़ खेनेवाले मल्लाहों ने पानी में उतरकर नाव को ठेलने के लिए बहुत ज़ोर मारा पर नाव किसी तरह नहीं टसकी। इस तरह एक दिन, दो दिन, तीन दिन करके बहुत दिन बीत गये। सौदागर सोचने लगा, यह नाव कैसे चलेगी, किस प्रकार इस विपत्ति से उद्धार होगा।

एक दिन, एक बूढ़ा ब्राह्मण बग़ल में पोथी दबाये और हाथ में छड़ी लिये उस सौदागर के पास आकर बोला—"अजी सौदागर! मैं ज्योतिषी हूँ; मैं बता सकता हूँ कि तुम्हारी नाव कैसे चलेगी।" सौदागर बहुत ख़ुश हुआ। उसने कहा—बाबाजी! अगर आप कृपा