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[पाॅंचवाॅं
आदर्श महिला

पानी दिया। सौदागर ने उस सती को साष्टाङ्ग प्रणाम करके कहा—देवी! मैं बड़ी विपत्ति में फँस गया हूँ। मेरी नाव इस नदी की रेती में अटक गई है। एक पखवारा हो गया, मैं यहाँ बड़ा कष्ट पा रहा हूँ। आज एक ज्योतिषी कह गये हैं कि आप उस नाव को छू देंगी तभी वह नाव चलेगी; नहीं तो नहीं। माताजी! एक बार चलकर मेरी नाव को छू दीजिए।

रानी ने कहा—आपके कहने से मुझे अभी वहाँ जाकर आपकी विपद दूर करना चाहिए, किन्तु महाशय! स्वामी की आज्ञा बिना मैं कैसे जा सकती हूँ?

सौदागर ने कहा—माताराम! हम इतने आदमी इतने दिन से कष्ट पा रहे हैं, यह सुनकर भी आपके मन में दया नहीं आती?

चिन्ता और कुछ नहीं कह सकीं। माता का सम्बोधन सुनकर उनकी सारी आशङ्का दूर हो गई। चिन्ता ने सोचा कि मेरी सन्तान पर विपद पड़ी है, मुझे जाना ही चाहिए। धन्य स्त्री का हृदय! प्रेम, आदर और ममता का—स्त्री के हृदय में—त्रिवेणी-सङ्गम है। प्रीति ही स्त्री का प्राण है। स्त्री मातृत्व से ही सार्थक और धन्य है। इसी से आज उसे जंगल में चिन्ता स्वामी की आज्ञा की बाट न देखकर सन्तान की विपद दूर करने चलीं। विकट अभाग्य उनको जाते देख, पीछे से उनकी हँसी करने लगा। मातृत्व के गर्व में भूली हुई चिन्ता देवी, उस ताने-भरी, हँसी को नहीं सुन सकीं।

[१२]

चिन्ता ने नदी में उतरकर स्नान किया। फिर वे भगवान् सूर्य्यदेव को प्रणाम करके बोली—"हे अन्तर्यामी! मुझे ज्योतिषी-द्वारा सौदागर की विपद दूर करने की आज्ञा हुई है। हे लीलामय! सब तुम्हारी ही लीला है।" भगवान् का मधुर नाम