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आख्यान]
२५५
चिन्ता

लेते-लेते चिन्ता ने नाव को छू दिया! नाव तुरन्त चल पड़ी। सौदागर का मन प्रसन्न हुआ। उसने सोचा कि ज्योतिषी की बात सच निकली। पल भर में उसके जी में कुबुद्धि समाई। उसने विचारा कि अगर फिर कहीं मेरी नाव अटक जायगी तो मुश्किल होगी। इसी ख़याल से उसने झट उस सती को हाथ पकड़कर नाव में खींच लिया।

शेरनी की तरह गरजकर रानी बालों—क्यों रे नरपिशाच! तू ने मुझे क़ैद कर लिया? तू मुझे माँ कहकर अपनी विपद दूर करने के लिए ले आया था न? अरे अभागी नर-पशु! तेरा यही धर्म-ज्ञान है? भगवान् ने मुझसे तेरा इतना उपकार कराया और तू नरक का कुत्ता नेकी को नहीं मानता? तू ऐसा व्यवहार करके अपनी कृतज्ञता दिखाता है? भगवान् सूर्यदेव! आप सब देख रहे हैं। इस पापी, धूर्तता की प्रत्यक्ष मूर्त्ति, सौदागर को भयङ्कर आग से भस्म कर दीजिए। पृथिवी में अन्याय का नाश हो और सत्य का प्रकाश फैले।

सौदागर का मन दया से किसी तरह नहीं पिघला। चिन्ता बहुत गिड़गिड़ाई, किन्तु पापी ने एक न सुनी। जब सती नदी में कूदकर डूब मरने को तैयार हुई तब सौदागर के हुक्म से रानी के हाथ-पैर बाँध दिवे गये।

चिन्ता ने देखा कि अब छूटने का कोई उपाय नहीं है, तब उन्होंने, नदी-किनारे की, लकड़हारों की रोती हुई स्त्रियों से चिल्लाकर कहा—"सखियों! मेरे स्वामी से कह देना कि दुष्ट सौदागर मुझे क़ैद करके हाथ-पैर बाँधे लिये जाता है। वे जल्दी आकर मेरा उद्धार करें।" नाव तेज़ी से जाने लगी। अब किनारे खड़ी स्त्रियों को न देखकर वे नाव पर सिर पटकने लगीं।

प्रकृति के मामूली ढाढ़स से हृदय जब कुछ शान्त हुआ तब