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आख्यान]
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चिन्ता

उन्हें समझाने लगीं, किन्तु किसी तरह उनको ढाढ़स नहीं हुआ। उन्होंने स्त्रियों से पूछा—"दुष्ट सौदागर चिन्ता को हरकर किधर ले गया?" स्त्रियों ने कहा कि सौदागर धारा के रुख पर गया है। नदी-तीर के रास्ते पर राजा तेज़ी से जाने लगे। वे आगे-पीछे कुछ नहीं देखते। केवल ज़ोर-ज़ोर से 'चिन्ता—चिन्ता' पुकारते थे। उस निर्जन देश में मनुष्य का कहीं पता नहीं। राजा पुकारते हैं, चिन्ता—चिन्ता। झांई बोलती है, चिन्ता—चिन्ता। राजा पागल की तरह नदी के किनारे-किनारे दूर तक दौड़े चले गये किन्तु कहीं सौदागर की नाव का पता नहीं लगा।

इस प्रकार श्रीवत्स कई दिन और कई रात चले। सौदागर की नावका कुछ पता न पाकर वे एक दिन एक पेड़ के नीचे बैठकर सोच रहे थे कि प्यारी के लिए इतना जी-तोड़ परिश्रम किया पर कुछ भी पता नहीं लग सका। प्यारी बिना यह पापी प्राण किस काम का? यह सोचते सोचते वे सुन्न हो गये। अचानक उन्हें लक्ष्मी की बात की याद आ गई। उन्होंने सोचा, लक्ष्मी देवी बता चुकी हैं कि बारह वर्ष तक मुझे शनि की दृष्टि से तरह-तरह के कष्ट भोगने पड़ेंगे। तो क्या सौदागर द्वारा मेरी चिन्ता का हरा जाना शनि की कुदृष्टि का ही फल है? यही बात है। तब जीवन से ऊबकर आत्म-हत्या नहीं करूँगा। वह एक मनोहर आश्रम दिखाई देता है, वहीं चलना चाहिए।

आश्रम में जाकर राजा श्रीवत्स उसके मनोहर दृश्य से प्रसन्न हुए। उन्होंने देखा कि आश्रम के चारों ओर तरह-तरह के जंगली वृक्ष लगे हैं। बीच-बीच में, भौंरों के गूँजने से शोभायमान पुष्पलताओं से लिपटे हुए देवदार के वृक्ष जंगल की शोभा बढ़ाकर सिर उठाये खड़े हैं। उस आश्रम में कमल, कुमुद आदि पानी में उपजनेवाले फूलों से तालाब शोभा पा रहा है। प्रकृति के इस मनोहर

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