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[पाॅंचवाॅं
आदर्श महिला

दृश्य को देखकर राजा श्रीवत्स सुध-बुध भूल गये। ऐसा जान पड़ता था, मानो छहों ऋतुऐं वहाँ एक साथ विराज रही हैं; अथवा विधाता ने अपनी सुन्दर कूँची से एक मनोहर चित्र खींचकर प्रकृति की गोद में रख दिया है। उस आश्रम में न रोग है, न शोक है, न ज्वाला है, न यंत्रणा है, न पाप है, न ताप है—है केवल शान्ति। ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं है। हिंसा नहीं है, द्वेष नहीं है—सब जगह खूब गहरी शान्ति विराजती है। शेर और हिरन, बाघ और बकरी, साँप और नेवला तथा दूसरे भक्ष्य-भक्षक भाववाले जानवर आपस में मिलकर खेल रहे हैं। महाराजा श्रीवत्स ने, इस पवित्र आश्रम में पहुँचकर क्लेश के हाथ से बहुत कुछ छुटकारा पाया। उनका तपा हुआ प्राण शीतल हुआ। खेद के कारण उदास मुख पर प्रसन्नता की झलक दीख पड़ी।

श्रीवत्स ने जाना कि यह सुरभि का आश्रम है। यहाँ देवताओं की देवियाँ घूमती-फिरती हैं और सफ़ेद कामधेनु विचरती है। प्रसन्न होकर राजा कामधेनु का दर्शन करने चले। सामने कामधेनु को देखकर राजा ने प्रणाम कर कहा—माँ, देवताओं की जननी! सन्तान का कष्ट दूर करो। तुम्हारा दूध पीकर देवता लोग धन्य हुए हैं। माँ! मैं एक मतिहीन अभागा हूँ—अशान्ति की ज्वाला से जल रहा हूँ।

राजा की कातरता देख सुरभि ने प्रसन्न होकर कहा—श्रीवत्स! चिन्ता छोड़ो। तुम अपनी प्राणप्यारी चिन्ता को जल्दी ही फिर पाओगे। बेटा, विलाप मत करो। तुम्हारा सुखरूपी सूर्य जल्दी उगेगा। इस आश्रम पर शनि का कुछ अधिकार नहीं है। तुम यहाँ बेफिक्र होकर रहो। ग्रह-दशा के वर्ष बीत जाने पर, तुम इस आश्रम से निकलकर, चिन्ता को ढूँढ़ने जाना। वह पतिव्रता कुलवधू