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आख्यान]
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चिन्ता

अद्‌भुत उपाय से अपना बचाव किये हुए है। भगवान् सूर्यदेव की कृपा से सती का सती-धर्म और भी चमक उठा है। वत्स! सोच को छोड़ो। मैं तुम्हारी बुरी हालत को देख बहुत दुःखी हूँ। भूख या प्यास लगने पर मेरा दूध पी लेना।

राजा श्रीवत्स सुरभि के आश्रम में बेखटके दिन बिताने लगे। उन्होंने देखा कि कामधेनु के थन से निकली दूध की धार से आश्रम का एक अंश भीगकर अपूर्व सुन्दर हो गया है। राजा ने उस सोने के कणों से मिली और कामधेनु के दूध से भीगी मिट्टी को लेकर सोने की बहुतसी ईटें बनाई। फिर अपनी कारीगरो से उन ईटों को एक अजीब ढंग से जोड़कर रख छोड़ा।

[१४]

एक दिन राजा, आश्रम के पास, नदी किनारे बैठे हैं। इतने में देखा कि एक सौदागर की नाव किनारे आ लगी। राजा ने सौदागर के पास जाकर कहा—"देखा सौदागर! मैंने कुछ सोने की ईटें तैयार की हैं। मैं चाहता हूँ कि उन्हें तुम्हारी नाव पर रखकर बेच आऊँ।" सौदागर राज़ी हो गया।

राजा ने सब ईंटें सौदागर की नाव पर लाद दीं। फिर वे कामधेनु की आज्ञा लेकर, सौदागर की नाव पर चढ़कर, व्यापार करने निकले। रात होने पर लोभी सौदागर ने श्रीवत्स को हाथ-पैर बाँधकर नदी में गिरा दिया। राजा श्रीवत्स नदी में बहने और रोते-रोते कहने लगे—"चिन्ता! चिन्ता! मेरे जीवन-आकाश की पूर्ण चन्द्र-सी चिन्ता कहाँ हो? मेरी इस अन्तिम दशा को तुमने नहीं देखा, इस विलाप-वाणी को सुनकर चिन्ता ने पहचाना कि यह तो मेरे प्राणनाथ की बोली है। अचानक यह स्वर कहाँ से आया? उन्होंने देखा कि हाथ-पैर बँधा हुआ