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आदर्श महिला

एक आदमी पानी में डूब रहा है। तब रानी ने दुःखित होकर एक तकिया जल में फेंक दिया। उस तकिये के सहारे श्रीवत्स तैरन् लगे। सौदागर की नाव हवा का रुख पाकर धारा में, तीर की तरह, चली गई। सती के आँसुओं की धारा उस नाव का बोझ बढ़ाने लगी।

तकिये के सहारे तैरते तैरते श्रीवत्स एक उजाड़ बाग़ के पास आ लगे। उनके हाथ-पैर बँधे हुए थे, इस से वे उठ-बैठ नहीं सके। उसी दशा में, फुलवाड़ी के पास पड़े-पड़े, वे मृत्यु की राह देखने लगे। राजा ने देखा कि सूखा हुआ बाग़ एकाएक हरा-भरा हो गया; तरह-तरह के फूल खिल उठे, भौंरे गूँजने लगे और कोयल कुहकने लगी।

सबेरे मालिन जब अपनी फुलवाड़ी में आई तब सूखी-साखी बग़ीची को फल फूलों से हरी-भरी देखकर बहुत खुश हुई। वह सोचने लगी कि मैं हज़ार उपाय करके भी इसको सँभाल नहीं सकी थी, आज किस देवता की कृपा से इसकी यह शोभा हो गई। इसी खुशी में वह इधर-उधर घूम रही थी कि उसने फुलवाड़ी के नज़दीक एक बहुत ही सुकुमार जवान को पड़ा देखा। उसके हाथ-पैर बँधे थे। मालिन सोचने लगी—यह कौन भाग्यवान् है। यह साक्षात् वसन्त है या कामदेव! इन्हीं महापुरुष के आने से मेरी सूखी फुलवाड़ी हरी-भरी हो गई है।

सोचते-सोचते मालिन ने उस अपरिचित पुरुष के पास जाकर विनती से पूछा—"तुम कौन हो? यहाँ, इस तरह क्यों पड़े हो?" राजा ने कहा—मैं एक अभागी बनिया हूँ। डाकुओं ने मेरा सब धन लूटकर, हाथ-पाँव बाँधकर मुझे नदी में ढकेल दिया था। बहते-बहते मैं यहाँ आ पहुँचा हूँ। बन्धन के कष्ट से प्राण निकलना चाहता है। दया करके मेरा बन्धन खोल दो।