पृष्ठ:आदर्श महिला.djvu/२८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२६६
[पाॅंचवाॅं
आदर्श महिला

अचरज हुआ। वे सोचने लगे-इस पवित्र देव-तरु के पुष्प में यह रोग क्यों?

चिन्ता देवी ने राजा श्रीवत्स के पास जाकर उनके चरणों में प्रणाम किया। श्रीवत्स ने उनको पहचाना नहीं। वे सोचते थे कि मेरी चिन्ता का वह मनोहर रूप कहाँ गया। बहुत देर तक सोचने-विचारने के बाद उन्होंने पूछा—चिन्ता, तुम्हारी ऐसी दशा क्यों हुई?

चिन्ता—महाराज! रूप ही स्त्रियों का सत्यानाश करता है। इसी से, मैंने इस दुष्ट की पाप-दृष्टि से बचने के लिए सूर्यदेव से गलित कुष्ठ रोग माँग लिया। महाराज! मेरी साधना पूरी हो गई। मैं अभागिनी आपके पवित्र चरणों को छूकर धन्य हुई।

तब चिन्ता ने स्वामी के चरणों की रज को अपने शरीर भर में लपेटकर हाथ जोड़कर सूर्यदेव से कहा—"हे भगवन्! इस डरी हुई के डर का दिन बीत गया। अब मेरा पहला रूप लौटा दीजिए।" देखते ही देखते चिन्ता का रूप पहले ही का ऐसा सुन्दर हो गया। सब लोगों को बड़ा अचरज हुआ।

इतने में शनि देवता हँसते हँसते वहाँ आ पहुँचे। आज उनकी वह भयंकर मूर्त्ति नहीं है। उन्होंने वर देनेवाली शुभमूर्ति के रूप में वहाँ आकर कहा—"महाराज श्रीवत्स और रानी चिन्ता देवी!" तुम लोग धन्य हो। इतने दुःख और आफ़तों को सहकर भी तुम कर्त्तव्य को नहीं भूले। तुम लोगों की यह पवित्र कीर्त्ति अभी होने वाले लोगों को आदर्श स्वरूप होगी। महाराज! आशीर्वाद देता हूँ कि लक्ष्मी तुम्हारे घर में सदा वास करे। धर्म में तुम्हारी अचले श्रद्धा हो। महाराज! और एक बात है। कर्मों के फल से ही भाग्य बनता है। तुम लोगों ने बारह वर्ष तक जो दुःख भोगा है उस दुःख का देनेवाला देवता मैं हूँ। कर्म-फल से मैं भी निन्दित काम करने