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आख्यान]
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चिन्ता

पर नियत हुआ हूँ। आशा करता हूँ कि तुम लोग मुझ पर नाराज़, न होगे। बेटी चिन्ता देवी! तुमने ग्रह के फेर में पड़कर बहुत कष्ट पाया है, इसका कुछ ख़याल मत करना।" चिन्ता देवी ने नम्रता से कहा—देव! आग में तपाकर ही सोना परखा जाता है। तो क्या इसे सोने के ऊपर अन्याय कह सकते हैं?

यह अनहोनी अपूर्व घटना देखकर सब लोग चित्र की तरह अचल होकर सोच रहे हैं। इतने में राजा और रानी ने एक—स्वर से नीचे लिखा श्लोक पढ़कर शनि देवता को प्रणाम किया—

नीलाञ्जनचयप्रख्यं सूर्यपुत्रं महाग्रहम्।
छायाया गर्भसम्भूतं स्वां नमामि शनैश्चरम्॥

राजा-रानी को आशीर्वाद देकर शनैश्चर चले गये।

राजा बाहुदेव ने अनजाने में अनुचित व्यवहार हो जाने के लिए श्रीवत्स से बारम्बार क्षमा माँगी। श्रीवत्स ने कहा—राजन्! इसमें आपका कुछ अपराध नहीं। वह व्यवहार भी मेरे ग्रह के फेर के कारण ही हुआ। उसके लिए मैंने मन में कुछ बुरा नहीं माना है।

राजा ने प्रेम से चिन्ता का शृङ्गार कराया, फिर भद्रा को बुला खाने के लिए दासी भेजी।

भद्रा वहाँ आकर सब समाचार सुनते ही हक्का-बक्का हो गई। फिर चिन्ता के पास जाकर उसने हाथ जोड़कर कहा—"बहन! दासी का प्रणाम लीजिए।" चिन्ता ने बड़े आदर से भद्रा को छाती से लगाया। राजा श्रीवत्स के सौभाग्यरूपी आकाश में दो चन्द्रमा उग आये।

इतने में लक्ष्मी ने वहाँ प्रकट होकर कहा—श्रीवत्स! तुम जल्द अपने राज्य को जाओ। तुम्हारा राज्य फिर जैसे का तैसा हो गया है। प्रजा तुम्हारे विरह से व्याकुल है, देर मत करो।