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[ पहला
आर्दश महिला

मृग भी एक-एक बार रामचन्द्र के सामने आकर उनकी दिल्लगी उड़ाने लगा। उन्होंने उस अनोखे मृग को जीता पकड़ने की आशा न देखकर उस पर बाण चलाया। निशाना था अचूक, माया-मृग घायल होकर रामचन्द्र की सी आवाज़ में यह कहता हुआ मर गया- "राक्षस के हाथ से मेरा प्राण जाता है। हे सीता! हे लक्ष्मण! तुम कहाँ हो, आकर मुझे बचाओ।" माया-मृग के मुँह से ऐसी असम्भव बात सुनकर रामचन्द्र अचरज से सोचने लगे कि यह क्या मामला है। माया-मृग की इस उक्ति में कोई न कोई रहस्य अवश्य छिपा हुआ है—यह सोचकर रामचन्द्र तेज़ी से आश्रम की ओर चले।

कुटी में बैठी हुईं सीता, दूर से रामचन्द्र के गले की आवाज़ सुनकर, घबरा गईं और लक्ष्मण से बोलीं—"लक्ष्मण! तुम शीघ्र अपने बड़े भाई की सहायता को जाओ।" स्थिर-बुद्धिवाले लक्ष्मण रामचन्द्र की शक्ति को और वहाँ के राक्षसों की चालबाजी को अच्छी तरह जानते थे। इससे वे सीता की घबराहट देखकर भी रामचन्द्र की आज्ञा भङ्ग कर सीता को कुटी में अकेली छोड़कर जाने से हिचकने लगे।

लक्ष्मण को निश्चिन्त देखकर स्वामी की विपद से घबराई हुई सीताजी क्रोध से कटु वचन बोलीं। लक्ष्मण के स्वभाव और कार्रवाई को कोई गुप्त चाल समझकर सीता ने शेरनी की तरह गरजकर कहा—अरे दुष्ट लक्ष्मण! मैं समझ गई, तू बुरे मतलब से मेरे साथ आया है। तेरा भ्रातृ-प्रेम कोरा बहाना है।

विपद के समय मनुष्य की बुद्धि स्थिर नहीं रहती। सीता का भी यही हाल हुआ। लक्ष्मण के स्वार्थ-त्याग, भ्रातृ-प्रेम, संयम, उच्चहृदयता और पर-स्त्री के प्रति मातृ-भाव को आज सीता ने सन्देह की दृष्टि से देखा। आज कोई शैतान आकर सीता के सरल हृदय में विष