विभीषण से कहा—मित्रवर! आप शीघ्र मेरी प्राण-प्यारी सीता देवी को रानी के वेष में यहाँ ले आइए। विभीषण ने सीता देवी के पास जा हाथ जोड़कर निवेदन किया—"रखुकुल-कमलिनी सती! रामचन्द्र ने आज्ञा दी है कि आप अयोध्या की महारानी के वेष में रामचन्द्र से चलकर मिलिए।" सीता देवी ने कहा—"नहीं, मैं इसी वेष में आर्यपुत्र से मिलना चाहती हूँ। तीर्थ-क्षेत्र में सिंगार-पटार के लिए चिन्ता करने की क्या आवश्यकता है।" तब विभीषण ने कहा—"माता! पति की आज्ञा तोड़ना सती स्त्री के लिए कभी उचित नहीं। उन्होंने जैसा आदेश दिया हे वैसा ही आपको करना चाहिए।" सीताजी विभीषण की यह बात सुनकर बाल बाँधने को तत्पर हुईं।
विभीषण-पत्नी सरमा ने सौभाग्य की अग्रदूती की भाँति, वहाँ पहुँचकर तरह-तरह से सीता देवी का सिंगार किया। लङ्का राजभण्डार के क़ीमती कपड़ों और गहनों से सीता देवी की विरह से दुबली देह-लता आज ख़ूब सज-धज गई। सरमा ने सीताजी का सिंगार करके अन्त में मांग में सेंदुर दिया। वह, गोधूलि-ललाट में सन्ध्या समय के सूर्य की तरह, शोभा देने लगा। सरमा आज विरहिणी को, प्रेमोन्मादिनी के रूप में देखने के लिए, अनेक उपायों से सजाने लगी। सरमा एक बार कोई गहना एक तरह पहनाकर देखती कि अच्छा लगता है कि नहीं। उसमें ज़रा भी कसर जान पड़ने पर उसे निकालकर वह और तरह से पहनाती। सब ठीक-ठाक हो जाने पर सीता देवी पति-दर्शन को चलीं मानो पर्वत से निकली हुई नदी सारी बाधाओं को हटाकर सागर को चली है।
दस महीने बाद, सीता देवी का प्रीति से प्रफुल्लित मुख-कमल देख, रामचन्द्र ने सुध-बुध भूलकर कहा—आज मेरा सब परिश्रम सार्थक