पृष्ठ:आदर्श महिला.djvu/७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
आख्यान]
६१
सावित्री

अश्वपति की तपस्या से ब्रह्मा का सन्तुष्ट जान, सावित्री देवी ने वहाँ आकर उनसे कहा—ब्रह्मन्! राजा अश्वपति सन्तान के लिए घोर तपस्या कर रहा है। वह मेरी कृपा चाहता है। मैं उस पर प्रसन्न हूँ, किन्तु देखती हूँ कि उसकी तपस्या का फल देना मेरी शक्ति से बाहर है। देव! आप चराचर के भाग्य-विधाता हैं। अश्वपति को तपस्या का फल देने के लिए मुझे भाग्य-विधाता से लड़ना पड़ेगा। मुझमें शक्ति कहाँ कि ऐसा साहस करूँ।

सावित्री देवी की इस बात को सुनकर ब्रह्मा मुसकुराते हुए बोले—देवी! मैं तुम्हारे मन का भाव समझ गया हूँ। तुम अश्वपति की कामना पूरी कर सकती हो।

यह सुनकर सावित्री देवी ने विस्मय से कहा—ब्रह्मन्! ज़रा मर्त्यलोक में, तप से दुर्बल, राजर्षि के ललाट को तो देखिए। क्या आप नहीं देखते कि उनके भाग्य में निःसन्तान होना लिखा है? तब आप ऐसा क्यों कहते हैं?

ब्रह्मा ने सावित्री देवी की बात सुनकर कहा—देवी! इतनी साधारण सी बात भी नहीं समझती हो! इस दृश्यमान जगत् में सब कुछ कर्म-सूत्र पर अवलम्बित है। कर्म से ही बन्धन छूटता है, और कर्म से ही मनुष्य की गति बदलती है। असल में कर्म ही जगत् की प्रतिष्ठा है, मैं तो केवल निमित्त हूँ। अश्वपति की साधना ने उसके कर्म-फल का खण्डन कर दिया। उसकी यह साधना, उसके निःसन्तानपन को दूर करने में, समर्थ हुई है। वह तुम्हारे प्रसाद से सन्तान पा सकेगा। अश्वपति ने तुम्हारी उपासना की है और तुम उसकी उपासना से प्रसन्न भी हुई हो, इसलिए तुम उसको रूप-गुणवाली एक कन्या दे सकती हो।

सावित्री देवी ने विस्मित होकर कहा—"यह क्या? अश्वपति