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आदर्श महिला

मद्रराज, कुछ ही दिन में होनेवाले, सावित्री के अन्धकार से सने हुए रँडापे के जीवन को सोचकर चारों ओर अँधेरा देखने लगे। वे सोचने लगे कि इस आनन्द की मूर्ति बालिका को जान-बूझकर ऐसे दुःख के भयानक समुद्र में कैसे ढकेल दूँ। अन्त में उन्होंने कातर होकर कहा—बेटी सावित्री! मेरे स्नेह की सावित्री! ऐसे भयंकर संकल्प को छोड़ दो। मैं तुम्हारे हँसते हुए चेहरे को विषाद से मुरझाया हुआ नहीं देख सकता। मुझे वह शोकमय दृश्य मत दिखायो। फिर तुम्हारे लिए अभी तो वाग्दान भी नहीं हुआ है। लड़की बचपन में मा-बाप के अधीन है, इसलिए तुम किसी को मन नहीं सौंप सकती। तुम्हें तो वह अधिकार ही नहीं।

सावित्री ने कहा—पिताजी! मैं अबोध बालिका हूँ। मेरी बुद्धि ही कितनी सी है; इस विषय में कोई दावपेंच लड़ाने की शक्ति मुझमें नहीं। परन्तु एक निवेदन है कि आप लोगों की आज्ञा से ही तो मैंने पति को ढूँढ़ा है। मैंने जिनको हृदय का देवता मान लिया है वही मेरे जीवन के एकमात्र आधार हैं। चाहे उनकी उम्र थोड़ी हो चाहे बहुत, इसका विचार करना अब सती-धर्म के विरुद्ध है। पिताजी! क्षमा कीजिए, मुझे ऐसी आज्ञा न दीजिए। आप मेरे हृदय के देवता की आयु सिर्फ़ एक वर्ष की और बताते हैं; मैं कहती हूँ कि एक वर्ष तो बहुत अधिक है, यदि उनकी आयु एक ही दिन की हो तो भी उनके ऊपर से मेरा प्रेम घटाना मुश्किल है। पिताजी! यदि मैं अपने जीवन के देवता को इस जिंदगी में प्रेम देकर सुखी कर सकूँगी तो वे अवश्य ही मृत्यु के उस पार जाकर मेरे हृदय की भक्ति और अनन्य विश्वास पाकर तृप्त होंगे। प्रेम की पूजा ही स्त्री का श्रेष्ठ व्रत है। एकनिष्ठा स्त्री पवित्रता की बिना सूँघी हुई फूलमाला है। संसार की मामूली ज़िंदगी के मोह में पड़कर, क्या मैं मन चाहे पति की पूजा छोड़कर भ्रष्ट