पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/११०

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"भंग रंग में चंग सदा दुख द्वंद्व दूर हो जाते हैं।
सात द्वीप नव खंड तमाशा पलंग पड़े दरसाते हैं॥
ब्रह्मा, रुद्र, विष्णू, गणेश, देवी का ध्यान लगाते हैं।
विजया माता बल प्रताप तें फूले नहीं समाते हैं॥
भोजन कूँ अति रुचि बाढ़त हैं, नींद मस्त सो जाते हैं।
इसी नशे के बीच यार हम ब्रह्म लोक दिख आते हैं॥
जो विजया की निंदा करते, नरक बास सो पाते हैं।
गोपी* भोग मोक्ष की दाता पातक सकल नसाते हैं॥

गंग भंग दोउ बहन हैं रहतीं शिव के संग।
तरन तारनी गंग है लडुआ खानी भंग॥

कहैं भवानी सुन बंभोले विजया मत देव गँवारन को।
बालक पी खिल खिल्ल हँसे अरु वृद्ध पियें झख मारन को॥
ज्वान पियें सौ वर्ष जियें सेर दो एक नाज विगारन को।
सौभाग्यवती पिये संग पती रति लाभ, अकाज सुधारन को॥
वृद्धा जो पिये गृद्धा सी लगै श्रद्धा विश्वास विगारन को।
पुरुषोत्तम † हरि नाम बड़ो भवसागर पार उतारन को॥

जब ऐसे ऐसे अनेक भजन वह गा चुका तब उसने पीस छान कर रंग लगा लिया। जब भंग की छूँछ हाथ में लेकर यह "लेना हो! लेना वे……"की आवाज मार चुका तब उसने-"घोटे छाने और रंग लगावैं और तो भी साले भँगड़ी


  • पंडित गोपीनाथ जी (फतेसिंह जी) रचित

†पंडित पुरुषोत्तमलालजी रचित