पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/१११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ९८ )

बतावँ–"का एक आवाज फेंका दोनों के दोनों एक दम जाग उठे। जागते ही पंडित जी बोले―

"जैसा मनुष्य का मन ऐसे दुर्व्यसनों में लगता है, जैसा अभी यह अपना मन भंग पीसने में लागकर सिल लोढ़ी की तान और अपने राग में तल्लीन हो गया था और इस समय सभा बँधकर इसे दीन दुनियाँ की सुधी नहीं रहीं वैसे ही मनुष्य भगवान में मन लगावे तो उद्धार होने में संदेह ही क्या? महा- त्मा कबीर जी ने ठीक कहा है―

'मनका फेरत जग मुआ गया न मन का फेर,
कर का मनका छाँड कर मन का मनका फेर।'

हजार बर्ष तक माला फेरने से क्या? समस्त जप तप से, जन्म भर खाक रमाने का, माला फेरते फेरते मनका घिस डालने का परिणाम यही। यदि एक मिनट भी इस तरह परमेश्वर के चरणों में अपना मन लीन होकर अपनी सुधि बुद्धि जाती रहे तो होगया काम! सब जप और तप, तीर्थ और पूजा, सब ही इसके साधन हैं। भगवान् दत्तावेय जी के गुरू कंडारे की तरह यदि अपने काम में मग्न होकर उसे राजा की सवारी की खबर न रहे, यदि उसके कान बाजे बाजे की आवाज तक न सुनें तो बस समझ लो कि काम हो गया।"

"हाँ सत्य है! भक्ति और पातिव्रत एक ही से हैं। पूजा और तीर्थ उसके उपाय है। केवल अनन्यता चाहिए।"