पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/११२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ९९ )

"अनन्यता ही भक्ति का फाटक है। परंतु चाहिए अनन्यता।"

"अनन्यत अभ्यास से आती है।"

"बेशक!" कहकर ज्यों ही पंडित जी ने प्रातःस्मरण आरंभ किया और ज्यों ही प्रियंवदा प्राणनाथ के चरण धोने लगी एकाएक इनके कानों पर "हैं! ससुरी! और अरे निपूते" की आवाज आई। "हैं! हैं! क्या मामला है!" कहकर दोनों के कान खड़े हो गए। इन्होंने इस तरह सुना―

"खाने की बिरियाँ तो पाँच सेर चाहिए। एक हूँ रोटी कमती दई तो तू लातों से ख़बर लेबे कूँ तैयार और काम की विरियाँ निगोड़ी आँख दिखावै है? तू जजमान के पास जाकर वाकूँ राजी नहीं करैगो तो खायगो कहाँ? पथरा! कहा तेरे बदले मैं जाऊँगी? तू ओढ़नी ओढ़ कर घर में पड़ो रहै तो यह हूँ सही!

"सबेरे ही सबेरे लगाई किटकिट! राँड हत्यारी! नहीं जासैंगे। लेरे कहा बाप के नौकर हैं जो तेरे कहवे ते जामैं? , हमारी मौज है गए। मौज आई न गए! तू लँहगो पहन या पगड़ी पहन! आज हम न जामैंगे। तेरी जिह पर न जामैंगे। तू तो कहा तेरो बाप हूँ सुरग तें उतर आवै तो न जामैंगे। हम न जामैंगे तू हमारो कहा करैगी? बोल कहा करैगी? हम कहा तेरे गुलाम हैं? जो सदा तेरो ही कह्यो कियो करैं?"