पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/११३

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"है! मेरे बाप के सामने? मैं कहा करूँगी? मैं झाडू मार कर निकास दूँगी।"

"अच्छा मार! देखैं कैसे मारे है?" कहकर इधर चौबे जी ने सोटा टटोला और उधर चौबायिन ने झाडू। सोटा मिला नहीं। चौबायिन बड़ी होशियार थी। वह जानती थी कि "निपूता कहीं सिर न फोड़ डाले।" इसलिये जब पति से लड़ने को चली उसने लट्ठ पहले ही से छिपा दिया था किंतु प्रातः काल का समय था। घर में बुहारी देने के लिये झाडू उसके पास था। बस उसी से एक दो नहीं पाँच सात जमा दी। झाडू की मार खाकर धूल झाड़ते हुए चौबेजी उठे और-"अच्छा भागवान् जामैंगे!" कहते कहते खड़े होकर उसके आगे हो गए। आगे उस तरह नहीं हुए जैसे विवाह के समय भाँवरी फिरती बार आगे होते हैं, किंतु मार के मारे आगे हुए और मन ही मन चौबायिन को कोसते हुए इन्होंने पंडित प्रियानाथ के सामने खड़े होकर―"जय जमुना मैया की!" जा की……।" "ओ हो! आज प्रातःस्मरण में बहुत विघ्न पड़े!" कहकर ज्यों ही पंडित जी की पंडितायिन से चार नजरें हुईं चौबेजी की पूजा को याद करके दोनों आँखों ही आँखों में हँसे। हँसते हँसते पंडित जी बोले―"आइए चौबेजी महाराज! आपका मिजाज तो अच्छा है?"―"हाँ! जजमान अच्छो ही है।" कहकर चौबेजी बैठे और जब पंडितायिन की हँसी न रुक सकी तब वह वहाँ से भागकर अपने देवर के पास जा