पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/११७

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मर जायगा! प्रथम तो उस भिखारी को इतना पैसा ही कहाँ नसीब कि जन्म भर पड़ा खावे तो भी न बीते, फिर भाई ने उसे कुछ सहारा भी दिया तो उसे करके खिलावेगा कौन? उस नखराली भौजाई से रोटियाँ सेक कर खिलाना बनेगा? चार दिनों में लात मार कर निकाल देगी!"

"बहन, तेरी सलाह तो ठीक है। अब मैंने भी सोच लिया है। इस घर में पानी भी न पीयूँगी। पर जाऊँ भी तो जाऊँ कहाँ? कहीं जाकर माथा मारने का ठिकाना भी तो चाहिए। गुस्सा तो ऐसा आता है कि जहर खाकर सो रहूँ। मैंने मर मिटने के लिये अफीम की डिबिया भी निकाल ली थी। लेकिन (कुछ हँसी सी दिखाकर) महीने दो एक की आस है बस इसी विचार से रुक गई।"

"अरे तेरे लिये कहीं ठिकाना ही नहीं है? जिसकी माँ जान देने तक को तैयार उसके लिये माथा मारने को ठिकाना नहीं? देखो बात! मैं अपने ही यहाँ रख सकती हूँ। ऐसे संकट की बिरियाँ प्यारी बहन को मदद देने के लिये मेरा सिर तक हाजिर है पर करूँ क्या? मैं (अपने पति की ओर इशारा करके) उनसे डरती हूँ।"

"हाँ बहन सच है! पर मेरे बाप का मिजाज बहुत बुरा है। उनको पहले ही इन लोगों ने चुगलियाँ खा खा कर बहका रक्खा है। जो नाराज हो जाँय तो घर में घुसने तक न दें।"

"अरे बावली, माँ बाप कहीं बेटे बेटी से ऐसे नाराज