पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/११९

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भोर होते ही सुखदा वहाँ से चला दी। इस समय प्रश्न यही उठता है कि यह मथुरा कौन थी और उसने कांतानाथ से किस जन्म का बैर लेने के लिये सुखदा के भड़कते हुए क्रोध को अधिक भड़का कर उसके हाथ से ऐसा कुकर्म कराया। अथवा पराया घर फोड़ने की उसकी आदत ही थी! खैर इस सवाल का जवाब पाने के लिये पाठकों को कुछ समय तक राह देखनी पड़ेगी।

गाड़ी में सवार होने के बाद जब सुखदा का जोश कुछ कम हुआ तब उसने अपनी सहेली से पूछा भी कि–"रास्ते में मुझे कोई लूट ले तब?" परंतु मथुरा ने यह कह कर–"आज कल अंग्रेजों के राज में कोई लूटनेवाला नहीं? भले ही सोना उछा- लते चले जाओ और फिर गाड़ीवान भी मैंने ऐसा कर दिया है जो अपनी जान दे दे पर तेरा एक पैसा न लेने दे। तू डर मत! सुख से चली जा! और है ही कितनी दूर। मैं तो अभी पैदल फटकारूँ तो बारह वहाँ जाकर बजाऊँ।"

अपनी सहेली के शब्दों से संतोष पाकर सुखदा वहाँ से चली अवश्य परंतु ज्यों ज्यों गाड़ी आगे बढ़ती गई त्यों त्यों उस का कलेजा अधिक अधिक धड़कने लगा। कहीं पत्ते की खड़- खड़ाहट सुनाई दी और "चोर आ गया" कहीं दो चार आदमी इकट्ठे दिखाई देते ही "डाका"। उसे पेड़ पेड़ में नाले नाले में और जंगल जंगल में चोर, उचक्के, उठाईगीर और डकैत दिखलाई देने लगे। उसमें और चाहे कितने ही