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प्रकरण―१२

सुखदा की सहेली।

गत प्रकरण में सुखदा ने पाँच लुटेरों में से सहेली मथुरा के आदमी को पहचाना सो ठीक ही पहचाना था। मथुरा द्वारका की विवाहिता पत्नी नहीं थी। दोनों की जात भी एक न थी। बेशक द्वारका जात का मीना था और लूट खसोट ही उसका पेशा था किंतु मथुरा की जात पाँत का कुछ ठिकाना नहीं था। उसे कोई कुछ बतलाता था और कोई कुछ। हाँ इतना अवश्य था कि जब उसने द्वारका को अपना खसम बनाया तब उमर अट्ठाईस वर्ष की थी और इससे पहले वह पाँच छः जनों के घर में बैठ चुकी थी। अब तो उसे भली ही कहना चाहिए क्योंकि जब से बहनाते अथवा धरेजे की प्रथा के अनुसार द्वारका के घर में घुसी उसने पति बदलौवल का इरादा बिलकुल न किया और इसी लिये मथुरा की जवानी का उत्तरार्द्ध, बुढ़ापा द्वारका के यहाँ कट गया। कट गया और अच्छी तरह कट गया। यहाँ आने के बाद उसके व्यभिचार की कभी किसी ने शिकायत नहीं सुनी। बस यही कारण हुआ कि उसे अपने पड़ोस में पंडित कांता- नाथ ने रहने दिया।

उसने लोअर प्राइमरी स्कूल में हिंदी की खूब शिक्षा पाई