वह सचमुच "वृद्धा वेश्या तपेश्वरी" बन बैठी थी। वन अवश्य बैठी परंतु चोर चोरी से जाय तो क्या हेरा फेरी से भी जाय―इस कहावत के अनुसार उसने "तू बा बदलौवल" नहीं छोड़ी थी। सुखदा के पाल आ आ कर उसकी सहेली बस जाने का यही मुख्य कारण था।
पंडित और पंडितायिन जब सदा ही विदेश में रहा करते थे तब वे विचारे क्या जानें कि उनके घर में क्या होता है, किंतु बहुत चौकस होने पर भी कांतानाथ इसके झाँसे में आगए। उसने मथुरा को पढ़ी लिखी और नेक चलन समझ कर उसके अच्छे अच्छे उपदेशों की प्रशंसा सुन कर सुखदा को पढ़ाने पर नियत किया। मथुरा ने सुखदा को केवल लिखना पढ़ना ही क्या सिखलाया वरन जब सुशीला ने जिस तरह प्रियंवदा को शिक्षा देने में अपना ही नमूना उसके आगे खड़ा कर दिया था तब सुखदा की तालीम के लिये मथुरा का चरित्र ही आदर्श बनाया गया।
इसका जो कुछ परिणाम हुआ उसका कुछ अंश पाठकों ने गत प्रकरण में पढ़ लिया और शेष अब देख लेंगे। मथुरा की कुसंगति में पड़ कर सुखदा बिलकुल बिगड़ ही गई अथवा विगड़ते विगड़ते बच गई सो भगवान जाने किंतु इसमें लंदेह नहीं कि दोनों को पक्का भरोसा हो गया था और इसी लिये एक दूसरी के आगे खुल गईं थीं। इसी कारण से
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