पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/१२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ११४ )

गत प्रकरण में एक ने दूसरी से और दूसरी ने पहली से से कह दिया था कि―"तेरे गुण मेरे पेट में है।" अस्तु!

मथुरा ने अपने खसम से कह कर जिस समय सुखदा को लुटवा लेने का मनसूबा किया उस समय उसके अंतःकरण पर खटका अवश्य हुआ था कि दैव संयोग से जो कहीं यह भेद सुखदा को मालूम हो जाय तो बात बिगड़ जायगी किंतु वह अपने हथकंडे में कसकर सुखदा को कठपुतली बना चुकी थी, उसे अपनी "जबाँ दराजी" का भरोसा था कि बात की बात में कुछ न कुछ बात बना कर उसका संदेह तुरंत निवृत्त कर लूँगी और उसने यहाँ तक सोच लिया था कि कहीं भेद भी खुल जाय तो एक सुखदा के घर से आवागमन बंद होते ही दूसरा घर खुल जायगा। बस इसलिये उसने ही द्वारका को उत्तेजित किया और उसी की सलाह से भोंदू काछी कहीं से बैल और कहीं से गाड़ी लाकर सुखदा को अपने मैके पहुँचा देने पर तैयार हुआ।

मथुरा के खसम को इस बात की कसम थी कि जहाँ रहता उस जगह से बीस बीस कोस तक चोरी या डकैती न करता, यहाँ तक कि जिस राज्य में रहता उसमें सदा भला बन कर ही रहता। इस कारण उसने नाहीं नूहीं भी बहुत की किंतु आज वह मथुरा के झाँसे में आ गया और सब पूछो तो इसी लिये अपने ही हाथों से अपने पैर तुड़ा बैठा। अपने ही हाथों से उसने अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारी।