पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/१२९

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परामर्श से और बड़े भाई की आज्ञा से ये आठ दस आदमियों को साथ लेकर सुखदा को उसके मैके तक पहुँचाने गए। प्रियंवदा ने देवर से जब साफ कह दिया कि―"यदि कुछ से कुछ हो पड़ेगा तो जननी तुम्हारी लाजेगी, वह तो औरत की जाता है। उसे ही नीच ऊँच का ख्याल होता तो घर से निकलती ही क्यों? तुम यदि उससे दुःखी हो गए हो तो उसे वर्ष दो वर्ष मत बुलाना! और नहीं भी क्यों तुलाना? वह यदि अलग रहने ही में राजी है तो क्या चिंता है? अलग रहो। इस घर में जो कुछ है वह तुम्हारा ही है। हमारे यहाँ तुम्हारे सिवाय कौन है? बस खाओ पियो और मौज करो। खर्च बर्च की तुम्हें कुछ तकलीफ न होने पायेगी।'

इस तरह वे भाभी के दबाव डालने से गए और सो भी केवल उसे अपने बाप के दरवाजे तक पहुँच कर वापिस आजाने के लिए गए। सर अवश्य परंतु इनके जाने में कोई दो घंटे का विलंब हो गया था। यदि देरी न होती तो शायद ऐसी लूट खसोट का अवसर ही न आता। खैर! पंडित कांतानाथ को द्वारका के लट्ठ की चोट बेशक बहुत आई थी और इसीलिये एक बार वह धरती पर गिर कर लोट पोट भी हो गए थे किंतु फिर जी कड़ा करके वे उठे और अपने साथियों की सहायता से द्वारका के सिवाय जो लड़ाई के मैदान में से अपनी जान बचा कर भाग निकला था सब को पकड़ कर उन्हीं के साफों से कस लाए। माल भी इनके रत्ती रत्ती हाथ