पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/१३६

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ओर से गालियों के खूब गोले बरसे। लड़ाई में कितनी ही औरतों की साड़ियाँ फट गई, अंगिया फट गईं, लंहगे फट गए और गाल नोच नुचा कर लहू लुहान हो गए।

पंडित जी अभी तक विचार में मग्न थे। वे नहीं चाहते थे कि इन लुगाइयों की लड़ाई में पड़ कर अपनी भी पत धूल में मिला दें क्योंकि उनमें कितनी ही औरतें ऐसी भी थीं जो मामला आ पड़े तो उनके सिर की पगड़ी उतार लें। परंतु जब नौवत यहाँ तक पहुँच गई तब उनसे रहा न गया। वे अपने पोथी पत्रा यों ही डाल कर लाल लाल आँखें निकाले, क्रोध के मारे होंठ फड़फड़ाते अपनी कोठरी से बाहर हुए। बाहर आकर उन्होंने एक ललकार मारी। वे बोले―

"कोई है भी यहाँ? अरे मुलुआ! अजी रामदुलारे! ए नसीरखाँ! अवे सेवा! इन राड़ों को अभी कान पकड़ कर निकाल दो। उन्हों ने मेरे कान खा डाले! और (अपनी घर वाली और लड़की के लिये) यदि ये कुछ चीं चपड करें तो इन्हें भी निकाल डालो।"

बस पंडित जी का ऐसा क्रोध देख कर किसी ने लंबा घूँघट तान लिया, कोई लज्जित होकर और औरतों की आड़ में छिप गई और सब ही उनको गालियाँ देती हुई आपने अपने घर चली गई। बस पाँच मिनट में मैदान खाली हो गाया और बात अधिक चंग पर चढ़ जाने से यदि पंडित जी