पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/१३७

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को सचमुच हो गुस्सा आजावे तो वे तुरंत ही अपनी घर वाली को अपनी बेटी को लात मार निकाल ही दें, बस इसी डर से वे भी रो धो कर चुप हो गई।

वे चुप अवश्य हुई परंतु उनका अंतःकरण चुप न हुआ। वे मन ही मन जिस तरह के उधेड़ बुन में लगी रहीं, उनकी अनुपस्थिति में जो जो उनकी आपस में सलाह हुई और इसी प्रकार से जिस तरह का घाट पंडित जी अपने मन में घड़ते रहे, सो आगे चल कर किसा न किसी सूरत में प्रकट हो ही जायगा, परंतु पंडित जी ने उनसे बोलना, उनकी ओर आँख उठा कर देखना तक छोड़ दिया। जब दोनों ने मिल कर उनकी बहुत खुशामद की, खूब चिरौरी की, हाथ जोड़े, आँचल बिछाए और क्षमा माँगी तब पंडित जी ने कह दिया―

"अब बहुत हुआ। हद्द हो गई। बस हुआ। सहनशीलता का भी कहीं छोर है। बस क्षमा करो। 'धाया तेरे रीझने से खोजना ही निवार।' अब तुम अपने और मैं अपना। तुम्हारे मन में आवे सो करो। यह घोड़ा और यह मैदान। "जिमि स्वतंत्र होइ बिगरहिं नारी।" तुम्हारा अंकुश निकल गया। खैर? मेरा प्रारब्ध? भावी बलवान् है? ईश्वर की इच्छा कुछ ऐसी ही है?"

इसके अनंतर क्या हुआ सो यहाँ न लिखना किस्से को उलझन में डालना है और ऐसा करने से मामला तूल भी पकड़ेगा, इस लिये संक्षेप से यहाँ जतला देना चाहिए कि