पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/१३९

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उन्होंने भाभी से नाराज होने के बदले उस का उपकार माना भी था और कपिराज सुग्रीव ने मर्यादापुरुषोत्तम रामचंद्र जी से―"बालि परमहित जासु प्रसादा, मिले मोही प्रभु शमन विपादा।" कहकर वैरी वाली को धन्यवाद दिया था। यदि भगवान की कृपा से मेरी भी नरसी जी की तरह मनो- कामना सिद्ध हो जाय तो मेरा सौभाग्य। बस इस लिये, इसी आशा से मैं भी इन दोनों का उपकार मानता हूँ। जब इन्होंने कोई ऐसा काम ही नहीं किया तब इनके लिये राग होने का तो वास्ता ही क्या? धन दौलत मिट्टी है। न सदा किसी के पास रहा और न रहेगा। किंतु हाँ! इनके खोटे बर्ताव पर घृणा करके मेरे अंतःकरण में द्वेष नहीं है। अब भी भगवान इन्हें सुबुद्धि दे तो ये सुख से रह सकती हैं। नहीं तो जैसा करेगी वैसा पावेंगी।"

माँ के लिये काला अक्षर भैंस बराबर था। बेटी थोड़ी थोड़ी मथुरा की संगति से पढ़ चुकी थी परंतु वह भी इस पत्र को अच्छी तरह न पढ़ सकी और इस लिये अपने पड़ोसी के लड़के को बुला कर पढ़वाया। सुनते ही दोनों के होश उड़ गए। "हाय अनर्थ होगया।" कहकर माता मूर्छित हो गई। बेटी ने भी गगनभेदी रूदन से सुननेवालों का कलेजा फाड़ डाला। विस्तार जानने के लिये तो प्यारे पाठक कुछ धैर्य्य धारण करें किंतु सार यही है। इनका सारा धन धूल में