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जो ब्रज की रज है वही खाके कफे पा है,
मिट्टी यहाँ रह जाय तो वैकुंठ में क्या है?
रोशन है कि यह सिजदह गहे अहले यकीं है,
जो जर्रा है याँ खातमे कुदरत का नगीं है॥५॥
उठा है यहीं आके नकाबे रुखे तौहीद,
हर वक्त नज़र आता है यां जलवरा जावीद,
जो खाक में याँ मिल गए किस्मत है उन्हीं की,
जो मिट गए याँ आके हकीकत है उन्हीं की,
गलियों में याँ घिसटते हैं जिन्नत है उन्हीं की,
जो भीख का याँ खाते हैं दौलत है उन्हीं की,
यो ताज शाही पर भि कभी हाथ न मारैं,
दुनिया को मिलै तख्त तो इक लात न मारैं॥७॥

कह सक्ता हूँ क्या ब्रज की खूबी व लताफत,
वह आँख नहीं जिसमें हो नज्जारे की ताकत,
मैं यह भी नहीं चाहता बिगड़ी को बनाओ,
मैं यह भी नहीं चाहता तकलीफ उठाओ॥८॥

पर कुछ तो मेरे वास्ते तदबीर बताओ,
इतना भी नहीं हूँ जिसे चरणों से लगाओ,
नक्शे कफे पा फूँक निकलने को तो मिल जाय,
दो हाथ जमी ब्रज मैं जलने को तो मिल जाय॥९॥

देखो न खुदाई की करामात बिगड़ जाय,
ऐसा न हो शोले की कहीं बात बिगड़ जाय*॥१०॥


  • रागरत्नागर से।