पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/१५९

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दास है। यद्यपि वह इस गाँव का जमीदार नहीं, लबरदार नहीं, धनी नहीं किंतु अपनी बात का धनी अवश्य है। गाँव के छोटे बड़े सबही आदमियों के, शत्रु मित्र सब ही के दुःख दर्द में काम आता है, जिसे कुछ भी दुखिया पाया उसके पास बिना बुलाये आधी रात को दौड़ा जाता है और सब की भलाई के लिये पूछने पर नेक सलाह देता है, न पूछने पर भी अपने अनुभव की कहानी सुनाकर अच्छा उपदेश देता है। यों जाति का काछी होने पर भी उस गाँव के ब्राह्मणों का, राजपूतों का, बनियों का, सब ही का बाबा बना हुआ है। बूढ़े भगवान दास की भलाइयों की यहीं तक इतिश्री नहीं है। वह ब्राह्मण साधुओं का अच्छा सत्कार करता है भूखों को अन्न देता है और अंधे अपाहिजों की, लूले लँगड़ों की भरसक सेवा करता है। झूठ न बोलने की उसे सौगंद है और हज़ार काम होने पर भी उसके कम से कम दो घंटे नित्य ठाकुर सेवा में अवश्य जाते हैं।

बूढ़े बाबा को ऐसी दशा में चिंता काहे की है? इस बात का उत्तर देने के लिये अब बहुत देर ठहरना न पड़ेगा। जो कुछ होगा कचहरी पहुँचते ही प्रकाशित हो जायगा। हाँ इतना यहाँ कह देना चाहिए कि जिस समय यह अपने मन की घबराहट छिपाने के लिये, अपनी तबियत ताजी करने के लिये मुँह हाथ धोकर अपने कुटुंब से विदा हुआ, हज़ार रोकने पर भी इसके मुँह से इतना अवश्य निकल गया कि―"होम करने