पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/१७४

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"तुम भी आदमी हो या घनचक्कर। कोई मरा न मराया और यों ही रोना पीटना मचा दिया।" इसके बाद जब सब लोगों का संतोष हो गया तब इस खुशी में मिठाइयाँ बाँटी गईं। सब लोगों ने अपने अपने मन का संदेह कह कर उत्तर से संतोष किया। घरवाली ने पति के जाने बाद अपनी बेकली, लड़के लड़कियाँ और बाहुओं की घबड़ाहट का हाल कहा, बूढ़े ने तहसील की घटना अथ से लेकर इति तक कह सुनाई। और यों थोड़ी देर में सब काम काज जहाँ का तहाँ जम गया। परंतु पन्ना का संदेह न मिटा। उसने पूछा―

"क्यों रे भगवनिया भाई? और तो जो कुछ होना था सो हो गया और जो करेगा सो राम जी अच्छा ही करेगा पर तू इस जरा सी बात पर इतना घबड़ाया क्यों?"

"वाह घबड़ाता नहीं? तेरे लेखे जरा सी बात होगी? आदमी की इज्जत भी तो जरा सी है! उस बच्चे के इलजाम में मुझे शामिल बतला कर कोई जरा देर के लिये भी मुझे कैद में देदे तो सब इज्जत धूल में मिल जाय। मेरा बुढ़ापा बिगड़ जाय। मैं मुँह दिखाने लायक न रहूँ!"

"हाँ है तो यह ठीक! पर मामला ऐसा नहीं। इसमें तेरा कसूर नहीं! तैने ऐसा किया ही क्या है जिसके लिये तेरी इज्जत बिगाड़ी जाय?"

"बेशक! पर इज्जतदार की सब तरह पर मुशकिल है। कोई झूठ मूठ भी कह दे तो फिर मैं गया दीन दुनियाँ से।"

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