पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/१८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १६७ )

को जुदी ही मारे डालती है। ऐसी दशा में यदि बिचारे यात्री व्याकुल हो जाँय तो उनका दोष ही क्या?

किंतु क्या उन्हें केवल इतना ही दुःख है? भारतवासी अनेक शताब्दियों से कष्ट भोगने के आदी हैं, अभ्यस्त हैं और यह कष्ट भी अधिक देर का नहीं, इसलिये थोड़ी देर यदि जी कड़ा कर लें तो इसे भुगत भी सकते हैं परंतु एक दुःख सब से भारी आ पड़ा। इस जगह की ऐसी दुर्दशा देख कर चोरों की, उठाईगीरों की और जेबतराशों की भी जीभ लपलपाने लगी। उनकी नाज खूब ही बन आई। "बस आज गहरे हैं! जितना बन सके खूब लूटो! इस कसामसी के समय किसी की कोई सुननेवाला नहीं है।" बस इसी विचार में उन लोगों ने खूब हाथ मारने का लग्गा लगाया। "वह गठड़ी ले भागा! अरे, मेरी जेब? हाय मैं क्या करूँगा? अब टिकट के लिये पैसा तक नहीं। अजी किसी ने मेरी नथुनी खैंच कर नथुना तक फाड़ डाला। हाय कान की बालियाँ खैंच ले गया। देखो जी खून टपक रहा है। हाय मेरे सोने के बटन! यह देखो! यह देखो! मेरा चंद्रहार तोड़ ले गया। पकड़ो पकड़ो? खड़े खड़े क्या ताकते हो? मर्दो में नाम धराते हो? पकड़ो। तुम्हारे सामने से ले भागा और तुम से कुछ भी करते धरते नहीं बना तब तुम काहे के मद!" इस तरह की बात चीत से, रोने चिल्लाने से और हाय हाय करने से इस भीड़ में एक नई