पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/१८४

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आई। प्रियंवदा ने उन्हें बहुतेरा मना किया, अपने गले की सौगंद दिलाई, झुँझलाई, रिसाई और हाथ पकड़ कर उन्हें बिठला देने का भी उसने प्रयत्न किया। "ले गया तो क्या नसीब ले गया? भगवान तुम्हें प्रसन्न रक्खें। जो कुछ है तुम्हारी ही बदौलत है। मैं नहीं जाने दूँगी। ऐसी भीड़ में नहीं! अजी हाथ जोड़ती हूँ! नहीं! पैरों पड़ती हूँ नहीं!!" इत्यादि वाक्यों से पति को रोका किंतु उन्होंने इस समय इसकी एक भी बात पर कान न दी।

इन्होंने भीड़ की चीरते, छलाँग भरते, धक्के खाते और धक्के देते हुए "यह लिया! वह लिया! पकड़ लिया!" करके कोई पचास कदम के फासले पर उसे जा ही तो पकड़ा। एक हाथ में ट्रंक लटकाए और दूसरे हाथ से गर्दन पकड़े उसे धकियाते धकियाते यह सीधे पुलिस की चौकी में पहुँचे। वहाँ जाकर इन्होंने पहले उस चोर को दारोगा के हवाले किया। उसने हथकड़ी भरी और तब उनके नाम का कार्ड उनके हाथ से थाँमा। कार्ड हाथ में लेकर पढ़ते ही उसने इनकी ओर खूब निहार कर देखा और पहचाना। तब मुजरिम और माल की रसीद ले अपने पते का संकेत दे अपने ही हाथ से अपना लिखा हुआ बयान देकर पंडितजी अपने संगी साथियों में आ शामिल हुए। सब देखते के देखते ही रह गए कि यह मामला क्या है? ऐसी इनमें कौन सी करामात थी जो पुलिस से इनका इतनी जल्दी छुटकारा हो गया।