पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/१८८

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जाँय तो उन्हें वह अखरता नहीं है और न वे कभी इस बात की किसी से शिकायत करते हैं। खैर! जैसे तैसे जो यात्री गाड़ियों तक पहुँचने पाए वे एक एक कंपार्टमेंट (दर्जा) घेर कर वहाँ के राजा बन बैठे। आराम से बैठने और पैर फैला कर सोने के लालच से उन्होंने अपने अपने दर्जे की खिड़कियाँ बंद करली हैं, उनमें से मोटे मुसंडे बाहर खड़े होकर आनेवाले से "आगे जाओ! यहाँ जगह नहीं है!" कहकर टालते हैं और जो जबर्दस्ती करता है उससे मरने मारने को तैयार होते हैं। आज कहीं इसलिये गाली गुफ्ता होता है और कहीं मार कूट की भी नौबत आ पहुँची है। मुसाफिर इधर से उधर और उधर से इधर अपना बोझा लेकर भागते हैं। बोझा भी बेहद। एक एक आदमी के पास चार चार आदमी का। इसके सिवाय कोई एक दो बालकों से लदी हुई है और कोई बुरका ओंढ़े या घूँघट ताने इधर उधर जूतियाँ चटकाती फिरती है। "गाड़ियाँ सब भर गईं। खचा- रखच भर गईं! तिल धरने को भी जगह नहीं।" की आवाज आते ही स्टेशनवालों ने किसी दर्जे में आठ की जगह दस, दस की जगह बारह पंद्रह तक भर एदि और फिर भी जो मुसाफिर बच रहे वे भेड़ बकरी की तरह माल गाड़ियों में ठूँस दिए गए।

उस आदमी की बदौलत पंडित जी और उनके साथी यद्यपि फाटक की वेदना से बच गए परंतु इन सब को एक