पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/१९१

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से जा घुसे थे उन्होंने अपना सामान पटड़ियों पर लाद दिया और बैठे भी पाँव फैलाकर आराम से किंतु जो पीछे आने वाले थे उन्हें बैठने के लिये चार अंगुल जगह नहीं। यदि कोई मुठमर्दी करके दूसरों के बीच में घसमसा कर आ बैठा तो उसे दोनों ओर से दवा दवा कर लोग पीस रहे हैं और जो साहस हीन होकर अपना बोझा हाथ में उठाए खड़ा है तो खड़ा ही जा रहा है। कोई उससे कहनेवाला नहीं है कि- "भाई जन्म तैने भी किराया हमारी तरह दिया है तो तू बैठ क्यों नहीं जाता?" यात्रियों की स्वार्थपरायणता का भी कहीं ठिकाना है? इधर रेलवे कर्मचारियों ने जब आठ की जगह दस, बारह, पंद्रह तक, भेड़ बकरी की तरह ठूंस दिए हैं तो मुसाफिर भी उनके उस्ताद हैं कोई "आइस मा बाप!" कह कर भँगी बन जाता है और इस तरह अपने दर्जे में से और मुसाफिरों को भगाकर अपनी इकडंकी बजाना चाहता है। तब गोश्त की रकाबी फैलाकर कोई अपने आराम के लिये अपने साथियों को तंग कर रहा है। धार्मिक हिंदुओं को डरा कर, सत्ता कर और दिक करके आराम लूटने वालों नीचों की भी आज कल कमी नहीं है किंतु इस तरह मेहतर न होने पर भी जो मेहतर बनते हैं वे मेहतरों के भी मेहतर हैं। खैर। गाड़ी रवाना होते ही आपस का सब लड़ाई झगड़ा, सब कसा- कसी और सब धक्का धक्कु मिट कर अब भाई चारा आरंभ हुआ। अब बात चीत, घुट घुट कर बातें, बीड़ी बाजी और