पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/१९७

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तरह खिलखिला कर हँस पड़ेंगे सो अभी संदिग्ध ही है। खैर! जब इस तरह प्रियंवदा अपना सारा दुखड़ा रो चुकी तब पंडित जी ने प्राणप्यारी के कान से मुख लगा कर कहीं कोई सुन न ले इस भय से इधर उधर देखते हुए घुस पुस घुस पुस कुछ कहा और "सब से बढ़ कर यही उपाय है!" इस तरह कहते कहते मुसकरा कर अलग हट बैठे। दो तीन मिनट में "हाँ! एक बात और याद आई!" कह कर उन्होंने फिर प्यारी के कान में कुछ कहा, कुछ हँसते हँसते कहा किंतु वह पूरा नहीं कहने पाए। उनकी बात बीच में से काठ कर―"वाह जी! बस बहुत हुआ! बस बस! बहुत! दिल्लगी मत करो! ऐसा कहोगे तो मैं मर जाऊँगी!" कहते हुए प्यार के साथ एक हलका सा धक्का देकर "चलो हटो एक तर्फ!" कहते हुए पहले कुछ तिउरियाँ चढ़ाकर क्रोध दिखलाया और फिर हँस कर यह अलग हो बैठी।

इस अर्से में इनका खाली दर्जा फिर मुसाफिरों से भरने लगा। इनकी बात चीत प्रेमसंभाषण अथवा प्रेमकलह बंद हुई। पंडित जी को अवश्य रंज रहा कि वह अपनी रूठी रानी, को मनाने भी नहीं पाए किंतु थोड़ी ही देर में "इलाहाबाद! इलाहाबाद!" की आवाज के साथ ही स्टेशन के प्लेटफार्म पर आकर गाड़ी खड़ी हो गई। पहले जैसे गाड़ी में सवार होने के समय हडबड़ी मची थी वैसे ही अब उतरने के लिये उतावल है। बस एक दो और तीन