पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/२०

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में मग्न हैं। ऐसे खुले मुंह बाहर फिरना, अपना गोरा गोरा मुख औरों को दिखलाते फिरना और पर पुरुषों से हँस हँस कर बात चीत करना किस काम का। ऐसे सुख से तो घर में झुर झुर कर भर जाना अच्छा, परंतु हाय! संतान। संतान का नाम लेकर तुमने मेरा हृदय राख कर डाला। हाय! संतान के बिना हृदय सूना है, गोद सूनी है, घर सूना है और संसार सूना है।"

"अरी बावली, कहां का चर्खा ले बैठी। यहां दो घड़ी सुख से बिताने आए थे तिसमें भी तेरी हाय हाय न मिटी। देख सामने से सूर्यनारायण के अस्त होने की शोभा! अरी पगली तू नो रो उठी। रोती क्यों है! ओहो! बड़े बड़े आँसू! आँसू बहा कर अंगिया तक भिगो डाली। ऐंहैं! अपने गोरे गुलाबी गालों पर आंसुओं का ज्वारभाठा। ओहो! समुद्र उलटा चला आ रहा है। बस बस बहुत हो गई।" अपनी जेब से रूमाल निकाल कर प्यारी के आँसू पोंछते हुए कुछ गुदगुदा कर "बस बस! बहुत हुई! अब जरा अस्ताचलचूड़ावलंबी भगवान भुवनभा- स्कर के भी दर्शन कर लीजिए।"

"बस बस, रहने दो अपनी दिल्लगी! यह रोने के समय हँसना किस काम का? मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा सूर्यास्त! मुझे तो अपने घर में सूर्य का उदय दिखलाओ। उदय!"

"हा हा! ( फिर कुछ चुटकी सी लेते हुए ) देखो स्त्रियों का साहित्य! लोग कहते हैं कि हिंदुओं की स्त्रियाँ अपढ़ होती हैं किंतु अपढ़ होने पर भी ऐसा साहित्य।"