पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/२०३

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"जूते तो जोरू के मारियो। जोरू का गुलाम! खबर भी है घर की? यारों के एक ही लट्ठ से खोपड़ी फूट जायगी। जेलखाने भी चले जाँयगे तो क्या फिक्र है। वह तो हमारी सुसराल है। जैसे तीन बार वैसे चौथी बार भी सही।" इन सब को हटाता हुआ, सब के बीच में पड़कर सातवाँ बोला―"विचारे यात्री को क्यों दिक करते हो?" तब आठवें ने कहा―"यात्री भी तो गूँगा बहरा है। अगर यह अपना नाम धाम बतला दे तो सब अपना रास्ता लें!" इस पर "हाँ! गूँगा बहरा है! इसके साथी भी उल्लू के पट्ठे हैं। कोई बोलता ही नहीं।" की आवाज आई। किसी ने कांतानाथ को घेरा और किसी ने प्रियंवदा को। किसी ने भगवानदास को और किसी ने बुढ़िया को किंतु सब के सब चुप। इतने ही में पंडित जी की दूर खड़े हुए एक आदमी पर नजर पड़ी और तब ही उन्होंने ललकार कर कहा―"हट जाओ। फौरन अलग हो जाओ। नहीं तो मैं अभी पुलिस को पुकारता हूँ। हमारा पुरोहित वह खड़ा है।" उनके ऐसा कहते ही सब वहाँ से एक एक करके खसक गए। वह बूढ़ा ब्राह्मण इन्हें गाड़ी पर बिठला कर दारागंज ले गया और एक साफ सुथरे मकान में उसने इन्हें डेरा दिया।

इस तरह मकान में पहुँचने से इन्हें विश्राम और सो भी थोड़ा बहुत अवश्य मिला। थोड़ा बहुत इसलिये कि यहाँ जैसे पंडों के नौकरों ने इनको घेरा था वैसे ही पहुँचने पर बगलों में