पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/२०५

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पंडित जी के मुख से इसने शब्द निकलते ही दो एक को छोड़ कर सब के सब अपनी अपनी बहियाँ लेकर चल दिए। उन दोनों ने अपनी अपनी बहियों में गोता लगा कर नाम निकाले। यहाँ के जाट गूजर मिले। मुफ्त़ीगाँव के नाम के साथ भगवानदास के बड़े बूढ़े मिले और बहुत तलाश करने पर रामनाथ शास्त्री के हस्ताक्षरों की नकल मिली। नकल से पंडित जी का संतोष न हुआ तब असल मँगाई गई। पंडित जी के पिता ने जिसे अपना पुरोहित माना था उसके तीन भाई और तीनों के सब मिला कर सात बेटे थे। इन तीनों के नाम थे― मसुरिया, इमलिया, और मेंहदिया। तीनों में इमलिया विद्वान् था। उसके कर्मकांड से प्रसन्न होकर ही शास्त्री जी ने लिख दिया था कि―"

"हमने अपने प्राचीन पंडे को मूर्ख पाकर उसे छोड़ दिया। अब भी उसके घर में कोई पंडित पैदा हो तो हमारे बेटे पोते उसे मानें। पांडित्य ले प्रसन्न होकर हम इमलियादीन को अपना गुरु मान कर उसके चरण पूजते हैं। हमारी संतान यदि योग्य होगी तो योग्य को ही मानेगी। मुर्खौ को मानना अच्छा नहीं।"

अस इन तीनों भाइयों में से कोई नहीं रहा था, बीस वर्षों के बीच में इनके सातों बेटे मर चुके थे। दो तीन लड़के गोद अवश्य लिए गए किंतु वे भी अपनी विधवाओं के छोड़ कर चल बसे थे और जिस घर में पंडित रामनाथ शास्त्री ने बीस वर्ष]]