पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/२१

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( ८ )

"बस बस! बहुत हो गई। क्षमा कीजिए। मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा सूर्यास्त।"

"अरे जो उदय होता है वह अस्त भी होता है। संसार का यह नियम ही है। संसार के घटनाचक्र ने सूर्यनारायण तक को नहीं छोड़ा है।"

"नहीं नहीं। ऐसा न कहो। यह कहो कि जो अस्त होता है उसका सूर्य भगवान की तरह उदय भी होता है।"

"हाँ हाँ! सत्य है। अच्छी लाजिक है। अच्छा अभी अस्त तो देख ले फिर भगवान कल उदय भी दिखावेगा।"

"हाँ! अब आए कुछ ठिकाने। बोलो मैं तेरा चेरा। जो हारे हो तो कह दो।"

"सचमुच ही मैं जीता, नहीं नहीं तू जीती। स्त्री एक बार दूसरे की दासी बनकर जन्मभर के लिये उसे अपना दास बना खेती है और तब मैं तेरा दास ही……"

बस इतना कहते ही पत्नी ने पति का मुख पकड़ लिया। "बस बस आगे नहीं। प्राणनाथ आगे नहीं" कह कर ज्योंही उसने हाथ जोड़ कर मालिक से क्षमा माँगी तब अवसर साध कर पति ने―"ठहरा तब मैं सदा ही तुझ से हारा" कहकर अपना वावय पूरा किया और प्यारी ने दोनों कानों में अँगुलियाँ डालकर यह बात सुनी अनसुनी कर दी। थोड़ी देर तक दोनों की आँखों ही आँखों से न मालूम क्या क्या बात हुई―सो दोनों के मन जानें अथवा घट घट व्यापी परमात्मा, किंतु अब सुंदरी