पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/२१४

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"एक ही! निस्संदेह एक ही। यही ईश्वरीय माया है। प्रकृति देवी ने परम पिता परमेश्वर की वशवर्तिनी होकर ओ पुराने नाले थे उन्हें नदियाँ बना दिया और जहाँ नदियाँ थीं वहाँ नाले तक न रहे। इस परिवर्तनशील संसार में छोटे को बड़ा और बड़े को छोटा कर देना उस विचित्र खिलाड़ी का एक अद्भुत खिलवाड़ है। अनेक युगों पूर्व, अनेक चौक- ड़ियों पूर्व सरस्वती भी भारतवर्ष की बड़ी नदियों में थी। वह न मालूम कहाँ से निकल कर कहाँ कहाँ बहती हुई यहाँ आकर द्विवेणी से त्रिवेणी हो गई थी, अब कहीं कहीं छोड़ कर कहीं उसका पता तक नहीं है। संसार को कुछ का कुछ कर डालनेवाणे अवतारों तक का जब पुराणों की गाथाओं के सिवाय, इने गिने तीर्थों के सिवाय पता नहीं है तब यदि सरस्वती नामशेष रह गई तो आश्चर्य क्या? और जो भगवान के भक्त है, अधिकारी हैं उनके हृदयमंदिर में वह अब भी विराजमान् है। तुलसीकृत रामायण में महर्षि वाल्मीकि जी ने जो स्थान मर्यादा पुरुषोत्त रामचंद्र जी को निवास के लिये बतलाए थे उनमें जहाँ दशरथनंदन के दर्शन होते हैं वहाँ अब मी सरस्वती विद्यमान है।"

"हाँ! कहिए तो कौन कौन स्थान है? जरा उन्हें ताजा कर दीजिए।"

"अच्छा सुनो भगवान रामचंद्रजी के प्रश्न के उत्तर में