पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/२२

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( ९ )

एकाएक हाथ जोड़कर, पति परमात्मा के चरण कमलो में अपना सिर रखते हुए गिड़गिड़ा कर बोली―

"नाथ, अपराध हुआ। क्षमा करो। इस दासी की चूक हुई।"

"नहीं नहीं चूक का ( दोनों हाथ पकड़ कर अपने हाथों ले दबाते हुए ) क्या काम?"

"बस! बस!! अब अधिक नहीं। जी यह क्या करते हो। कहाँ तक मसकोगे? मेरी कलाइयाँ टूटी जाती हैं"।

जिस समय इन दोनों में इस तरह आमोद प्रमोद की बातें हो रही थीं एकाएक इनकी दृष्टि सूर्यनारायण के लाल लाल थाली जैसे बिंब की ओर गई। उस समय का सूर्य प्रकाशहीन चंद्रमा का सा था। धीरे धीरे दिन भर की कठिन तपस्या के अनंतर भगवती वसुंधरा की गोद में छिपने के लिये जा रहा था। "बस वह छिपा। यह डूबा! अभी आधा! नहीं अब पूरा डूब गया! छिप गया।" की आवाज़ दोनों ही के मुख कमलों में से निकल कर दोनों ही के कर्णकुहरों में प्रवेश कर गई। तब पति ने पूछा―

"इससे तैने क्या मतलब निकाला?"

"सुख के अनंतर दुःख और दुःख के अनंतर सुख होता है। जब दिन भर में सूर्य भगवान की तीन अवस्थाएं हो जाती हैं तब बिचारा आदमी किस गिनती में? परंतु मैं इस नतीजे को तब ही सच्चा मानूँगी जब मुझे भी दुःख के बाद सुख हो"।