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जन्हुकन्या धन्य पुण्यकृत सगर सुत भूधर द्रोणी
विद्दरणि बहु नामिनी।
यक्ष गंधर्व मुनि किन्नरोरग दनुज मनुज मज्जहि सुकृत
पुंजयुत कामिनी।
स्वर्ग सोपान विज्ञान ज्ञान प्रदे मोह मद मदन
पाथोज हिम यामिनी।
हरित गंभीर बानीर दुहुँ तीर बर मध्य धारा
विशद विश्वं अभिरासिनी।
नील पर्यंक कृत शयन सर्पेश जनु सहसशीशावली
स्त्रोत सुर स्वामिनी।
अमित महिमा अमित रूप भूपावली मुकुटमणि बंध
बैलोक्य पथगामिनी।
देहु रघुबीर पद प्रीति निर्भर मातु तुलसीदास आस
हरणि भव भामिनी।"
कांतानाथ ने ललकारा―
"हौं तो पंचभूत तजिबे को तक्यो सोहि पर तैंतो करयो मोहि
भलो भूतन को पति है।
कहै पद्माकर सुएक लन तारिबे में कीन्हें तन ग्यारह
कहो तो कौन गति है॥
मेरे भाग गंग यही लिखी भागीरथी कहिये कछुक सो
कितेक मेरी मति है।